वैद्यराज kahani

वैद्यराज

 वैद्यराज पं. त्रिलोचन शर्मा का आयुर्वेद पर बहुत अचूक अधिकार था । आयुर्वेद के सभी महत्वपूर्ण ग्रन्थ उन्हें कण्ठस्थ (जुवानी याद) थे । नाड़ी-ज्ञान भी उनका अद्भुत था । भयंकर से भयंकर रोग से पीड़ित किसी भी रोगी की सही पहचान कर लेते थे । इसीलिए उनसे चिकित्सा कराने वाला प्रत्येक निरोग होकर ही लौटता था ।


उन्हें अपने इस अगाध ज्ञान का घमण्ड भी बिल्कुल न था। क्या राजा, क्या रंक-क्या धनी, क्या निर्धन-वे अपने रोगियों से भेद-रहित और प्रेम-पगा व्यवहार करते थे । न धनिकों की खुशामद (चाटुकारिता) और न गरीब से घृणा ।


उनके उत्तम व्यवहार ने उन्हें देश भर में प्रसिद्ध कर दिया। चारों ओर उनकी ख्याति फैल गई ।


फिर क्या था, देश के कोने-कोने से रोगी उनके पास पहुँचकर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करने लगे ।


विवाह को वैद्यजी, सेवा-कार्य में बाधक मानते थे, अतः उसके झमेले में वे न पड़े थे। वह स्वयं तथा उनके दो शिष्य-यही उनका परिवार था और दिन-भर रोग-पीड़ितों की सेवा, सुश्रूषा एवं चिकित्सा ही उनका दैनिक कार्य था ।


उनका यही कार्यक्रम चलता रहा-चलता रहा । यहाँ तक कि उनके चेहरे से यौवन का तेज घटने लगा, केश सफेद होने लगे तथा शरीर पर झुर्रियाँ भी पड़ने लगीं। ये सभी लक्षण बुढ़ापे का स्पष्ट संकेत दे रहे थे ।


एक दिन उन्होंने अपने दोनों प्रिय शिष्यों से कहा-मेरे प्रिय पुत्रो ! मैं अपना समस्त ज्ञान और अपने समूचे जीवन का अनुभव तुम्हें सौंप चुका हूँ। तुम दोनों ही सुयोग्य बन चुके हो ।"


"यह आप जैसे सन्त की कृपा का ही फल है गुरुजी, अन्यथा हम दोनों ही अनाथ रह गए थे । आपने हमें केवल विद्या का अमृत ही नहीं पिलाया है, पाल-पोसकर बड़ा भी किया है। हमारे माता, पिता, आचार्य सभी कुछ आप ही हो।" A


"तुमसे भी मुझे सदैव ही सगे बेटों से भी अधिक आदर और सेवा मिली है। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा । तुम यशस्वी जीवन बिताओ, यही मेरी कामना है।"


'आपके छत्र-छाया में रहकर हम सदैव सुखी हैं। आपकी

कृपा से हमें कमी ही क्या है ?"


"अपने शिष्यों की बात सुनकर वैद्यराज के चेहरे पर मुस्कान फैल गई। वे मुस्कुराते हुए बोले- 'वत्स, मेरा शरीर वृद्धावस्था में प्रवेश करने लगा है। मैं अब अपनी इस कुटिया को छोड़कर देश-विदेश की यात्रा करके प्रकृति के विराट रूप का दर्शन करना चाहता हूँ ।"


गुरुजी की यह घोषणा सुनकर दोनों शिष्य चौंक पड़े- "अच्छा!"


फिर एक ने पूछा-"कब लौटोगे आप?"


"कह नहीं सकता, कभी लौदूँगा भी या नहीं ? लौटकर करना भी क्या है ?"


"क्या...., इसका मतलब तो यह है कि आप हमें सदैव के लिए छोड़ देंगे । नहीं गुरुवर! ऐसा नहीं हो सकता । यदि आपका ऐसा विचार है, तो हम आपको रोकेंगे नहीं, किन्तु आपके साथ हम स्वयं भी चलेंगे ।"


"नहीं, वत्स ! मैं अकेला ही जाऊँगा ।"


शिष्य लोग इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि उनके गुरुजी अपने निश्चय पर दृढ़ रहने वाले व्यक्ति हैं। इसलिए वे उदास होकर बोले-गुरुवर ! अब तक तो आपने हमें समर्थ बनाने में कष्ट ही उठाया है। आपको अपनी सेवा से हम कुछ कि सुखी रख सकें, वह समय अब आया था कि अभी आपने हमें छोड़ने का निर्णय ले लिया ।" यों कहकर दोनों शिष्य बच्चों की तरह रोने-बिलखने लगे ।

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